रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश
रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश – रश्मिरथी खंडकाव्य का सारांश या कथावस्तु बोर्ड एग्जाम की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण प्रश्न है।
प्रश्न – रश्मिरथी खंडकाव्य की कथावस्तु या सारांश को संक्षिप्त में लिखिए
उत्तर – ‘रश्मिरथी’ नामक खंडकाव्य का कथानक सात सर्गों में विभक्त है, जिसका सारांश इस प्रकार है –
प्रथम सर्ग : कर्ण का शौर्य- प्रदर्शन – प्रथम सर्ग में कर्ण राजकुमारों को प्रतिद्वंदिता के लिए चुनौती देता है और अपनी शस्त्र-कलाओं से अर्जुन, द्रोण तथा भीष्म आदि को आश्चर्यचकित कर देता है। इसके बाद कर्ण द्वंद्व-युद्ध के लिए अर्जुन को ललकारता है परन्तु कृपाचार्य कहते हैं कि अर्जुन राजकुमार है, वह सूतपुत्र कर्ण से नहीं लडे़गा। कर्ण अपमान का घूंट पीकर रह जाता है।
दुर्योधन परिस्थिति से लाभ उठाता है और कहता है कि शुरों और नदियों का मूल जानना आवश्यक नहीं होता है। जात-पात का नारा केवल कायर और क्रूर लोग लगाया करते हैं। यदि बिना राज्य के कर्ण को वीरता का अधिकार नहीं है तो मैं अंगदेश का मुकुट इसके मस्तक पर रख रहा हूं। दुर्योधन के इस व्यवहार से कर्ण गदगद हो जाता है। उधर द्रोणाचार्य को कर्ण के शौर्य पर चिंता हो जाती है। वे अर्जुन को सावधान करते हैं और कर्ण को शिष्य न बनाने का निश्चय करते हैं।
द्वितीय सर्ग : आश्रमवास – द्रोणाचार्य द्वारा धनुर्विद्या न सिखाये जाने का आभास होने पर कर्ण द्रोणाचार्य के गुरु परशुराम के आश्रम में गया। जहां परशुराम ने कवच और कुंडल के कारण कर्ण को ब्राह्मण कुमार समझा और कर्ण को अपना शिष्य बना लिया। एक दिन परशुराम कर्ण की जान्घ पर अपना मस्तक रख कर सो रहे थे परंतु तभी एक जहरीला कीड़ा कर्ण की जान्घ में काटने लगा।
गुरु की निद्रा भंग न हो इसलिए कर्ण हिला डुला तक नहीं परंतु रक्त की गर्म धारा के स्पर्श होते ही परशुराम जाग पड़े और कर्ण की सहनशीलता देखकर उन्हें उसके क्षत्रिय होने का संदेह हुआ और वे गंभीर स्वर में बोले – “तू अवश्य ही क्षत्रिय या किसी अन्य जाति का है।” कर्ण द्वारा स्वयं को सूतपुत्र स्वीकार कर लेने पर भी उनका क्रोध कम नहीं हुआ और उन्होंने कर्ण को शाप दिया कि – “मेरे द्वारा सिखाई गई सारी विद्या तू अंत में भूल जाएगा।”
तृतीय सर्ग : कृष्ण संदेश – श्री कृष्ण पांडव के दूत बनकर संधि का प्रस्ताव लेकर दुर्योधन के पास जाते हैं परंतु दुर्योधन पांडवों को केवल 5 गांव भी देने को तैयार नहीं होता बल्कि उल्टे श्रीकृष्ण को भी बंदी बना लेना चाहता है। तब श्री कृष्ण अपने विराट रूप का प्रदर्शन करते हैं और सभी जगह आतंक व्याप्त हो जाता है। श्री कृष्ण यहां से वापस होते समय कर्ण को साथ लाते हैं और उसे समझाते हैं कि तुम्हारे ही बल पर दुर्योधन युद्ध ठान रहा है।
चतुर्थ सर्ग : कर्ण के महादान की कथा – इस सर्ग में कर्ण की दानवीरता का बड़ा ही भव्य चित्रण प्रस्तुत किया गया है। कर्ण की दानवीरता का अनुचित लाभ उठाकर इंद्र अपने पुत्र अर्जुन की रक्षा के लिए कर्ण से उसके कुंडल और कवच को मांग लेते हैं। कर्ण इस छल को भलीभांति समझता है किंतु वह सब कुछ जानते हुए भी अपना अंतिम सुरक्षा कवच दान में दे देता है।
पंचम सर्ग : माता की विनती – पांचवें सर्ग में कुंती स्वयं कर्ण के पास दुर्योधन का दल छोड़कर पांडवों का पक्षधर बनने का आग्रह करने के लिए आती है। कर्ण के लिए यह विकट परीक्षा की घड़ी है किंतु वह दुर्योधन का साथ छोड़कर विश्वासघात नहीं करना चाहता। कुंती को भी वह खाली हाथ नहीं लौटता। कर्ण कुंती को आश्वासन देता है कि वह अर्जुन को छोड़कर शेष चार भाइयों की रक्षा करेगा।
षष्टम सर्ग : शक्ति परीक्षण – इस सर्ग में कवि का मुख्य उद्देश्य कर्ण के अद्भुत शौर्य का बखान करना है। श्री कृष्ण की कूटनीति से प्रेरित घटोत्कच के संहार के लिए कर्ण को इंद्र द्वारा प्राप्त एकाघ्नी बाण भी छोड़ देना पड़ता है। यद्यपि घटोत्कच मर जाता है और कर्ण विजयी हो जाता है परंतु विजयी होने पर भी एकाघ्नी बाण के अभाव में कर्ण चिंतित हो जाता है।
सप्तम सर्ग : कर्ण के बलिदान की कथा – इस सर्ग में कर्ण धर्म की रक्षा के लिए अपने जीवन को बलिदान कर देता है। कर्ण का बलिदान पांडव पक्ष के लिए महान आश्चर्य है।