Knowledgebeemplus

सांस्कृतिक परिवर्तन

सांस्कृतिक परिवर्तन

सांस्कृतिक परिवर्तन

सांस्कृतिक परिवर्तन

प्रश्न 1. ‘ इन्दु प्रकाश ‘ किसकी रचना है ?
( क ) विष्णु शास्त्री की ( ख ) वीरेशलिंगम की
( ग ) अम्बेडकर की   ( घ ) ज्योतिबा फुले की 

प्रश्न 2. ज्योतिबा फुले ने किस स्थान पर महिलाओं के लिए पहला विद्यालय खोला ?
( क ) नागपुर ( ख ) पुणे
( ग ) कलकत्ता  (घ) मुंबई

प्रश्न 3. राजा रवि वर्मा क्या थे ?
( क ) चित्रकार ( ख ) संगीतकार
( ग ) मूर्तिकार ( घ ) लैण्ड आर्टिस्ट

प्रश्न 4. निम्न में से किसने सती प्रथा का विरोध किया था ?

( क ) राजा राममोहन राय ( ख ) ईश्वरचंद विद्यासागर
( ग ) वीरेशलिंगम ( घ ) रामकृष्ण परमहंस

प्रश्न 5. ” पश्चिमीकरण ‘ की अवधारणा किसने दी है ?
( क ) डी ० एन ० मजूमदार ने ( ख ) आर ० के ० मुखर्जी ने

( ग ) सोरोकिन ने ( घ ) एम ० एन ० श्रीनिवास ने

प्रश्न 6. संस्कृति को भौतिक और अभौतिक संस्कृतियों में किसने वर्गीकृत किया है ?
( क ) मार्गन ( ख ) वेबर
( ग ) सोरोकिन ( घ ) आगबर्न

प्रश्न 7. सामाजिक परिवर्तन एक सीधी रेखा में होता है , यह किस सिद्धान्त की अवधारणा है ।
( क ) चक्रीय ( ख ) रेखीय
( ग ) उद्विकासीय ( घ ) जनांकिकीय

प्रश्न 8. सती प्रथा निषेध अधिनियम कब पारित हुआ ?

( क ) 1815 ( ख ) 1829
( ग ) 1863 ( घ ) 1894

प्रश्न 9. भारत में आधुनिकीकरण का प्रमुख कारक है
( क ) औद्योगीकरण ( ख ) नगरीकरण
( ग ) पश्चिमीकरण ( घ ) इनमें से सभी

अति लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1 . विसंस्कृतीकरण शब्द का अर्थ बताइए ।
उत्तर – उन क्षेत्रों में जहाँ गैर – संस्कृतीकरण जातियों ( निम्न जाति ) की प्रधानता थी तथा जिसने संस्कृतीकरण जातियों ( उच्च जातियों ) को प्रभावित किया , उसे विसंस्कृतीकरण का नाम दिया गया ।

प्रश्न 2 . पश्चिमीकरण से आप क्या समझते हैं ?
उत्तर – पश्चिमीकरण वह प्रक्रिया है , जिसके अंतर्गत लोगों ने पश्चिम के मूल्यों को अपनाना प्रारंभ कर दिया , जिसके कारण संस्कृति तथा सामाजिक संरचना में बदलाव आए ।

प्रश्न 3. आधुनिकीकरण शब्द का क्या मतलब है ? उत्तर – आधुनिकीकरण एक बहुआयामी शब्द है । यह लोगों के जीवन में निर्मित क्षेत्रों – आर्थिक , राजनीतिक , सामाजिक तथा सांस्कृतिक पक्षों को एक नया अर्थ प्रदान करता है ।

प्रश्न 4. औपनिवेशिक भारत में सांस्कृतिक परिवर्तनों को जानने के लिए किन – किन आयामों को जानना आवश्यक है ?
उत्तर- औपनिवेशिक भारत में सांस्कृतिक परिवर्तनों को जानने के लिए आधुनिक संदर्भ में इसके तीन आयामों को जानना आवश्यक है संचार के प्रकार , संगठनों के प्रकार , विचारों की प्रकृति ।

प्रश्न 5. संस्कृति क्या है ?
उत्तर – संस्कृति को एक अंतक्रिया के रूप में देखा जाता है , जो नियमित रूप से तथा बारंबार होती है । इसका संबंध ज्ञान , विश्वास , कला , मूल्य , नियम , परंपरा अथवा सामाजिक सदस्य के रूप में मनुष्य द्वारा अर्जित किसी अन्य क्षमता से है ।

One Word Substitution

लघु उत्तरीय प्रश्न

प्रश्न 1. भारतीय समाज में धर्म के महत्त्व की विवेचना कीजिए ।
उत्तर- भारतीय समाज में धर्म का बहुत महत्त्व है । धर्म के मामले में मुस्लिम अन्य धर्मों के मुकाबले अधिक पाबंद हैं । वे नियमित पाँच बार नमाज पढ़ने पर जोर देते हैं । उनके 30 दिन के रोजे – बिना खाये – पिये एक लम्बे समय तक रहना काफी कठिन है । धर्म के नाम पर वे कुछ गलत बोलने को बर्दाश्त नहीं करते हैं । हिन्दू धर्म भारत में सबसे ज्यादा माना जाता है । इसमें अनेक देवता और देवियों की पूजा प्रचलित है । हिन्दू धर्म में 16 संस्कार हैं । हिन्दू धर्म विश्व का सर्वाधिक उदार धर्म माना जाता है । दया , त्याग , ममता , सौहार्द और वसुधैव कुटुम्बकम् की भावना इसमें पायी जाती है । हिन्दू विश्वास करते हैं कि प्रत्येक कर्म के आध्यात्मिक परिणाम होते हैं । कर्म के अनुसार अगला जीवन मिलता है । धर्म के अनुसार जीवन व्यतीत करने से नैतिकता का विकास होता है । हिन्दुओं के जीवन में विभिन्न अनुष्ठानों का बहुत महत्त्व है । जैन धर्म की मुख्य विशेषता साधुओं का सर्वाधिक कठोर एवं पवित्र जीवन है । जैन धर्म ‘ जियो और जीने दो ‘ के सिद्धान्त से परिचालित है । सिख धर्म के अनुयायी अहंकाररहित और परिश्रमी जीवन व्यतीत करते हैं । लंगर चलाना इस धर्म की सर्वाधिक अनूठी परम्परा है । बुरे वक्त में सबसे ज्यादा मदद करने वालों में सिखों को जाना जाता है । सिख अपने धर्म के प्रति अटूट निष्ठा और सेवा – भाव रखते हैं ।

प्रश्न 2. सांस्कृतिक परिवर्तन पर एक टिप्पणी लिखिए ।

उत्तर – सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न अंगों में होने वाला परिवर्तन है । सांस्कृतिक परिवर्तन प्रसार तथा वैज्ञानिक आविष्कारों से आता है । इसका सम्बन्ध मानव द्वारा उत्पादित भौतिक तथा अभौतिक वस्तुओं से है । सांस्कृतिक परिवर्तन से सम्बन्धित प्रमुख तथ्य निम्नलिखित हैं –
1. सांस्कृतिक परिवर्तन संस्कृति के विभिन्न पक्षों के परिवर्तन से सम्बन्धित हैं ।
2. सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन की प्रक्रिया की उपज है ।
3. सांस्कृतिक परिवर्तन प्रमुख रूप से नये आविष्कारों और सांस्कृतिक विशेषताओं के प्रसार से उत्पन्न होता है ।
4. अभौतिक संस्कृति के विभिन्न अंगों ; जैसे – धर्म , नैतिकता , प्रथाओं , परम्पराओं और सांस्कृतिक मूल्यों में परिवर्तन धीमी गति से आते हैं ।
5. सांस्कृतिक परिवर्तन सामाजिक परिवर्तन के अन्दर ही एक विशेष रूप ग्रहण करता है सांस्कृतिक परिवर्तन के फलस्वरूप सांस्कृतिक परिवर्तन तत्पन्न होना सदैव आवश्यक नहीं होता , यद्यपि इसकी सम्भावना अवश्य की जा सकती है ।

भारतीय समाज एक परिचय

प्रश्न 3 .उन्नीसवीं सदी में हुए समाज सुधारक आधुनिक संदर्भ एवं मिश्रित विचारों से संबद्ध थे ।
उत्तर – उन्नीसवीं सदी में हुए समाज – सुधारक आधुनिक संदर्भ एवं मिश्रित विचारों से संबद्ध थे । यह प्रयास पश्चिमी उदारवाद के आधुनिक विचार एवं प्राचीन साहित्य के प्रतीक नयी दृष्टि के मिले – जुले रूप में उत्पन्न हुए । कुछ प्रमुख मिश्रित विचार निम्नवत् हैं  –
1. राममोहन राय ने सती प्रथा का विरोध करते हुए न केवल मानवीय व प्राकृतिक अधिकारों से संबंधित आधुनिक सिद्धांतों का हवाला ही नहीं दिया बल्कि उन्होंने हिंदू शास्त्रों का भी संदर्भ दिया ।
2. रानाडे ने विधवा – विवाह के समर्थन में शास्त्रों का संदर्भ देते हुए ‘ द टेक्स्ट ऑफ द हिंदू ला ‘ जिसमें उन्होंने विधवाओं के पुनर्विवाह को नियम के अनुसार बताया । इस संदर्भ में उन्होंने वेदों के उन पक्षों का उल्लेख किया जो विधवा पुनर्विवाह को स्वीकृति प्रदान करते हैं और उसे शास्त्रसम्मत मानते हैं ।
3. शिक्षा की नयी प्रणाली में आधुनिक और उदारवादी प्रवृत्ति थी । यूरोप में हुए पुनर्जागरण , धर्म सुधारक आंदोलन और प्रबोधन आंदोलन से उत्पन्न साहित्य को सामाजिक विज्ञान और भाषा – साहित्य में सम्मिलित किया गया । इस नए प्रकार के ज्ञान में मानवतावादी , पथनिरपेक्ष और उदारवादी प्रवृत्तियाँ थीं ।
4. सर सैयद अहमद खान ने इस्लाम की विवेचना की और उसमें स्वतंत्र अन्वेषण की वैधता ( इजतिहाद ) का उल्लेख किया । उन्होंने कुरान में लिखी गई बातों और आधुनिक विज्ञान द्वारा स्थापित प्रकृति के नियमों में समानता को दर्शाया ।
5. कंदुकीरी विरेशलिंगम ने अपनी पुस्तक ‘ द सोर्स ऑफ नॉलेज ‘ में नव्य – न्याय के तर्कों का स्पष्ट वर्णन किया है । उन्होंने जुलियस हक्सले द्वारा लिखे ग्रंथों को भी अनुवादित किया ।

Our Mobile App for Board Exam – https://play.google.com/store/apps/details?id=com.knowledgebeem.online

प्रश्न 4 . पश्चिमीकरण का साधारणतः मतलब होता है पश्चिमी पोशाकों तथा जीवन – शैली का अनुकरण । क्या पश्चिमीकरण के दूसरे पक्ष भी हैं । क्या पश्चिमीकरण का मतलब आधुनिकीकरण है ? चर्चा करें ।
उत्तर – एम ० एन ० श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण की परिभाषा देते हुए कहा कि यह भारतीय समाज और संस्कृति में , लगभग 150 सालों के ब्रिटिश शासन के परिणामस्वरूप आए परिवर्तन हैं , जिसमें विभिन्न पहलू आते हैं … जैसे प्रौद्योगिकी , संस्था , विचारधारा और मूल्या पश्चिमीकरण के विभिन्न प्रकार रहे हैं । एक प्रकार के पश्चिमीकरण का मतलब उस पश्चिमी उप – सांस्कृतिक प्रतिमान से है जिसे भारतीयों के उस छोटे समूह ने अपनाया जो पहली बार पश्चिमी संस्कृति के संपर्क में आए हैं । इसमें भारतीय बुद्धिजीवियों की उप – संस्कृति भी शामिल थी । इन्होंने न केवल पश्चिमी प्रतिमान चिंतन के प्रकारों , स्वरूपो एवं जीवन शैली को स्वीकारा , बल्कि इनका समर्थन एवं विस्तार भी किया । यद्यपि ऐसे लोग कम ही थे जो पश्चिमी जीवन – शैली को अपना चुके थे या जिन्होंने पश्चिमी दृष्टिकोण से सोचना शुरू कर दिया था । इसके अलावा अन्य पश्चिमी सांस्कृतिक तत्त्वों ; जैसे – नए उपकरणों का प्रयोग , पोशाक , खाद्य – पदार्थ तथा आम लोगों की आदतों और तौर – तरीकों में परिवर्तन आदि थे । पूरे देश में मध्य वर्ग के एक बड़े हिस्से के परिवारों में टेलीविजन , फ्रिज , सोफा सेट , खाने की मेज और उठने बैठने के कमरे में कुर्सी आदि आम बात हो गई है । पश्चिमीकरण में किसी संस्कृति – विशेष के बाह्य तत्त्वों के अनुकरण की प्रवृत्ति भी होती है ।

जीवन -शैली एवं चिंतन के अलावा भारतीय कला और साहित्य पर भी पश्चिमी संस्कृति का प्रभाव पड़ा । अनेक कलाकार ; जैसे – रवि वर्मा , अबनींद्रनाथ टैगोर , चंदू मेनन और बंकिमचंद्र चट्टोपाध्याय सभी औपनिवेशिक स्थितियों के साथ अनेक प्रकार की प्रतिक्रियाएँ कर रहे थे ।

उपरोक्त विवेचना व उदाहरणों से से यह पता चलता है कि सांस्कृतिक परिवर्तन विभिन्न स्तरों पर हुआ और इसके मूल में हमारा , काल में पश्चिम से परिचय था । आज के युग में पीढ़ियों के बीच संघर्ष और मतभेद को एक प्रकार के सांस्कृतिक संघर्ष और मतभेद के रूप में भी देखा जाता है जो कि पश्चिमीकरण का परिणाम है । हालाँकि पश्चिमीकरण का मतलब आधुनिकीकरण ही नहीं है , यह तो किसी गैर – पश्चिमी देश में भी हो सकता है । पश्चिमीकरण और आधुनिकीकरण में जटिल संबध पाया जाता है । पश्चिमीकरण के अनेक मूल्य आधुनिकीकरण के सूचक भी माने जाते हैं । सभी समाजों में आधुनिकीकरण की प्रक्रिया उनकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से प्रभावित होती है । अत : आधुनिकीकरण के अनेक प्रतिमान है और उपरोक्त विवेचना और यह हमेशा पश्चिमीकरण का समरूप नहीं होता है ।

Visit our YouTube channel for board exam – https://www.youtube.com/c/Knowledgebeem

प्रश्न 1. संस्कृतीकरण पर एक आलोचनात्मक लेख लिखें ।

उत्तर- संस्कृतीकरण शब्द का प्रतिपादन एम ० एन ० श्रीनिवास ने किया । संस्कृतीकरण के अंतर्गत निचली जाति अथवा जनजाति या अन्य समूह उच्च जातियों , विशेषत : ‘ द्विज जातियों ‘ की जीवन पद्धति , रीति – रिवाज , मूल्य , विचारधारा तथा आदर्शों का अनुकरण करते हैं । यह एक प्रारंभिक प्रक्रिया है , जो कि हिंदू समाज में अपघटित होती है , तथापि श्रीनिवास का मानना है कि यह गैर – हिंदू समाज में भी देखी जा सकती है । संस्कृतीकरण का प्रभाव विचारधारा , संगीत , नृत्य , भाषा , साहित्य , नाटक , कर्मकांड तथा जीवन – शैली में देखे जा सकते हैं । यह प्रक्रिया विभिन्न क्षेत्रों में अलग – अलग तरीके से होती है । उन क्षेत्रों में जहाँ कि उच्च संस्कृतीकरण जातियों का प्रभुत्व था , वहाँ बड़े पैमाने पर संस्कृतीकरण हुआ । उन क्षेत्रों में जहाँ संस्कृतीकरण जातियों का प्रभाव था , वहाँ इन्हीं जातियों का प्रभाव रहा । इसे ‘ विसंस्कृतीकरण ‘ का नाम दिया गया ।
श्रीनिवास का तर्क है-
“ किसी भी समूह का संस्कृतीकरण उसकी प्रस्थिति को स्थानीय जाति संस्तरण में उच्चता की ओर ले जाता है । सामान्यतया यह माना जाता है कि संस्कृतीकरण संबंधित समूह की आर्थिक अथवा राजनीतिक स्थिति में सुधार है अथवा हिंदुत्व की महान – परंपराओं का किसी स्रोत के साथ उसका संपर्क होता है । परिणामस्वरूप उस समूह में उच्च चेतना का भाव उभरता है । महान परंपराओं का यह स्रोत कोई तीर्थ स्थल हो सकता है , कोई मठ हो सकता है अथवा कोई मतांतर वाला संप्रदाय हो सकता है । ” लेनिक तीव्र असमानता वाला समाज , जैसे भारतीय समाज में , उच्च जातियों की जीवन – शैली , अनुष्ठान , ज्ञान आदि को निम्न जातियों द्वारा अपनाना मुश्किल है , क्योंकि इसके लिए अनेक सामाजिक रुकावटें हैं । वस्तुतः पारंपरिक तौर पर उच्च जाति के लोग उन निम्न जातीय लोगों को दंडित करते थे जो इस प्रकार की चेष्टा करने का साहस जुटा पाते थे ।

संस्कृतीकरण की आलोचना
संस्कृतीकरण की आलोचना निम्न आधारों पर की गई है –
1. इस अवधारणा की आलोचना इसलिए की जाती है क्योंकि इसमें सामाजिक गतिशीलता निम्न जाति का सामाजिक स्तरीकरण में ऊर्ध्वगामी परिवर्तन कराती है , यह एक अतिशयोक्तिपूर्ण है । इस प्रक्रिया से कोई संरचनात्मक परिवर्तन न होकर केवल कुछ व्यक्तियों की स्थिति में परिवर्तन होता है । कुछ व्यक्ति असमानता पर आधारित सामाजिक संरचना में , अपनी स्थिति में तो सुधार कर लेते हैं , लेकिन इनसे समाज में व्याप्त असमानता कम नहीं होती।
2. इस अवधारणा की विचारधारा में उच्च जाति की जीवन – शैली उच्च तथा निम्न जाति की जीवन – शैली निम्न है । उच्च जाति के लोगों की जीवन – शैली का अनुकरण करने की इच्छा को वांछनीय तथा प्राकृतिक मान लिया गया है ।
3. संस्कृतीकरण की अवधारणा असमानता तथा अपवर्जन पर आधारित प्रारूप को सही ठहराती है । पवित्रता तथा अपवित्रता के जातिगत पक्षों को उपयुक्त मानती हैं इसलिए ऐसा प्रतीत होता है कि उच्च जाति के द्वारा निम्न जाति के प्रति भेदभाव एक प्रकार का विशेषाधिकार है । समानता वाले समाज का आकांक्षा के बजाय वर्जित समाज एवं भेदभाव को अपने तरीके से अर्थ देकर बहिष्कृत स्तरों की स्थापित किया गया । इसके द्वारा अलोकतांत्रिक समाज का गठन हुआ ।
4. संस्कृतीकरण में उच्च जाति के अनुष्ठानों , रीति – रिवाजों की स्वीकृति मिलने की वजह से लड़कियों तथा महिलाओं को असमानता की सीढ़ी में सबसे नीचे धकेल दिया गया तथा कन्या – मूल्य के स्थान पर दहेज प्रथा और अन्य समूहों के साथ जातिगत भेदभाव बढ़ गए ।
5. संस्कृतीकरण में दलित संस्कृति तथा दलित समाज के मूलभूत पक्षों को भी पिछड़ापन मान लिया जाता है । उदाहरणार्थ – निम्न जाति के लोगों के द्वारा किए गए श्रम को निम्न तथा शर्मनाक माना जाता है । निम्न जाति से जुड़े सभी कार्यो ; जैसे – शिल्प , तकनीकी योग्यता आदि को गैर – उपयोगी मान लिया जाता है ।

प्रश्न 2 . धर्मनिरपेक्षता से आप क्या समझते हैं ? राष्ट्रीयता के निर्माण में इसकी भूमिका की विवेचना कीजिए ।
उत्तर – धर्मनिरपेक्षता समर्थन और विरोध के बीच विवादों के बावजूद साम्प्रदायिक तथा साम्प्रदायिकता शब्दों के अर्थ स्पष्ट हैं । विरोधाभासस्वरूप शब्दों – धर्मनिरपेक्षता तथा धर्मनिरपेक्षतावाद को स्पष्ट रूप से परिभाषित करना कठिन है । यह सामाजिक और राजनीतिक सिद्धांत के रूप में प्रस्तुत सर्वाधिक जटिल शब्दों में से पाश्चात्य सन्दर्भ में ‘ धर्मनिरपेक्ष ‘ शब्द का मुख्य भाव चर्च और राज्य की पृथक्कता का द्योतक है । धार्मिक तथा राजनीतिक सत्ता के पृथक्करण ने पश्चिम के सामाजिक इतिहास में नया परिवर्तन लाने का कार्य किया । यह जीवन में धर्म के प्रभाव के घटते जाने की प्रक्रिया को अंकित करता है क्योकि धर्म को जीवन के अनिवार्य दायित्व की बजाय स्वैच्छिक व्यवहार में बदल दिया गया । आधुनिकता के आगमन ने विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में विज्ञान तथा तर्कशक्ति के उदय को संचालित किया । धर्मनिरपेक्ष और धर्मनिरपेक्षता के भारतीय अर्थों में पश्चिमी भावार्थ तो शामिल है ही पर उसमें कुछ और भाव भी शामिल हुए । सामान्य भाषा में ‘ धर्मनिरपेक्ष ‘ का प्रयोग ‘ साम्प्रदायिक ‘ के विलोम के रूप में किया जाता है । धर्मनिरपेक्ष व्यक्ति अथवा राज्य वह होता है जो किसी विशेष धर्म या अन्य धर्मों की तुलना में पक्ष नहीं लेता । इस भाव में धर्मनिरपेक्षता धार्मिक उग्रवाद का विरोधी भाव है और इसमें किसी विद्वेष का भाव जरूरी नहीं है । धर्मनिरपेक्षता का भाव सभी धर्मों के प्रति समान आदर का घोतक होता है , न कि अलगाव और दूरी का ।

पाश्चात्य सन्दर्भ में , राज्य द्वारा सभी धर्मों से दूरी और भारतीय सन्दर्भ में , सभी धर्मों का समान आदर दोनों के बीच तनाव पैदा करता है । इसमें प्रत्येक भाव के समर्थक तब परेशान हो जाते हैं जब राज्य किसी अन्य धर्म को लेकर सहिष्णु दिखता है । एक धर्म – निरपेक्ष राज्य द्वारा हज यात्रा के लिए आर्थिक सहायता प्रदान करने अथवा तिरूपति मन्दिर का प्रबन्धन देखने या फिर तीर्थ यात्राओं के लिए सहायता प्रदान करने से कठिन स्थिति पैदा हो जाती है ।

धर्मनिरपेक्षता के ऐसे मुद्दों पर कार्य करने से असहज स्थिति उत्पन्न हो सकती है । उदाहरण के तौर पर – गोवध पर प्रतिबन्ध के बाद दूसरे धर्म भी अपने जुड़े अपवर्जनों को समाप्त करने पर बल देंगे । भारतीय राज्य द्वारा धर्मनिरपेक्षता के लिए प्रतिबद्ध होने के साथ अल्पसंख्यकों के संरक्षण की बात करने पर तनाव से जटिल प्रवृत्ति उत्पन्न हो जाती है । अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने का विरोध ‘ तुष्टीकरण ‘ के रूप में किया जाता है । विरोधी तर्क देते हैं कि अल्पसंख्यकों को संरक्षण देने का अर्थ राजनीतिक समर्थन प्राप्त करना है । समर्थक यह दलील देते हैं कि बिना संरक्षण के अल्पसंख्यकों पर बहुसंख्यक प्रतिमानों को थोपा जा सकता है ।

इस प्रकार के विवादों का समाधान उस समय और भी कठिन हो जाता है जब राजनीतिक दल अथवा सामाजिक आन्दोलन अपने निहित स्वार्थों के कारण उन्हें हल होने नहीं देते । हाल के वर्षों में सभी पक्षों के सम्प्रदायवादियों ने गतिरोध बनाने में योगदान दिया है । स्वतन्त्र भारत में पहली पीढ़ी के नेताओं ने लोकतान्त्रिक संविधान के तहत एक उदार , धर्मनिरपेक्ष राज्य का वरण किया तथा एक ऐसे राज्य की कल्पना की गई , जो सांस्कृतिक दृष्टि से तटस्थ हो ।

For more post visit our website – https://knowledgebeemplus.com

Visit our YouTube Channel – https://www.youtube.com/c/Knowledgebeemplus

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *